Wednesday, July 21, 2010

आदि से अंत तक



आदि से अंत तकशून्य से ब्रह्म तकज़िन्दगी के प्रथम स्वप्न से हो शुरूआस की डोर में सांझ में भोर में तुम ही मेरी सखा, तुम ही मेरीगुरूतुम ही आराध्य होतुम सहज साध्य होप्रेरणा धड़कनों के सफ़र की तुम्हींपथ संभाव्य में मन के हर काव्य में एक संकल्प लेकर बसी हो तुम्हींदर्द की तुम दवापूर्व की तुम हवाचिलबिलाती हुई धूप छांह होसृष्टि आरंभ तुमसेतुम्हीं पर ख़तमबस तुम्हारा ही विस्तार सातों गगनएक तुम आरुणीएक तुम वारुणी एक तुम ही हवा एक तुम ही अगनसृष्टि की तुम सृजक प्यास को तुम चषक मेरे अस्तित्व का तुम ही आधार होबिन तुम्हारे कभी चंद्रमा न रविहै अकल्पित कहीं कोई संसार होहर घड़ी, एक क्षणएक विस्तार, तृणजो भी है पास में तुमने हमको दियाकिंतु हम भूलतेदंभ में झूलते साल में एक दिन याद तुमको कियाकैसी है ये सदीकैसी है त्रासदीभूल जाते हैं कारण हमारा है जोहैं ऋणी अंत तकप्राण के पंथ परसांस हर एक माता तुम्हारी ही हो



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